कोई भी चुनाव हो, उम्मीदवार और पार्टियों की ओर से एक आग्रह या नारा हमेशा सुनाई देता है। आप अपना अमूल्य वोट फलां प्रत्याशी को देकर सफल बनाएं। यानि वोट हमारा अमूल्य होता है। लेकिन क्या मतदाता इसकी कीमत वाकई समझता है? शायद नहीं, लेकिन हमारे अमूल्य वोट से जीतने वाले विधायक, सांसद या इनसे निचली पायदान के जनप्रतिनिधि इसकी कीमत समझते हैं और मौका मिलते ही वसूलते भी हैं। केसै? कभी पार्टी बदलकर वसूली। कभी सरकार बचाने या गिराने के नाम पर फाइव-सेवन स्टार होटलों में बाड़ेबंदी में रहकर कई-कई दिन की मौज मस्ती करके। कभी तबादलों-नियुक्तियों के नाम पर कमाई करके। कभी पम्प-ठेके लेकर वसूली।
हम चुनाव में वोट किस पार्टी को देते हैं और वह वसूली के चक्कर में कहां से कहां पहुंच जाता है,पता ही नहीं चलता। क्योंकि नेताओं और पार्टियों को हमारी यानि मतदाताओं की नहीं, बल्कि सिर्फ अपनी सत्ता बनाने और बचाए रखने की परवाह होती है। लेकिन गलती इसमें हम मतदाताओं की भी तो है,जो कभी पार्टी विचारधारा के कारण,कभी जातिवाद के कारण,कभी लालच के कारण,तो कभी भावनाओं में बहकर ऐसे उम्मीदवारों को वोट देते हैं, जिनका दरअसल राजनीतिक विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं होता और जातिवाद भी उनके और पार्टियों के लिए सिर्फ अपने लाभ के लिए इस्तेमाल किए जाने वाला चुनावी कार्ड होता है। चुनाव जीतने के बाद ऐसे जातिवादी नेता अपनी जाति का भी कोई बहुत भला नहीं करते। लेकिन जातिवाद को सोशल इंजीनियरिंग कहकर भुनाया जाता है।
पिछले साल हुए कुछ राज्यों के विधानसभा चुनावों और अब लोकसभा चुनाव में तो नेताओं और पार्टियों ने बेशर्मी से हमारे अमूल्य वोट की कीमत दो कौड़ी की करके रख दी। रातोंरात पार्टी बदलने वाले नेताओं को टिकट थमा दिया गया। हमने जिसे पिछले चुनाव में चुनकर भेजा था,जब वह इस चुनाव में उतरा तो उसके पास चुनाव चिन्ह और कथित विचारधारा दूसरी थी। क्या ऐसा करने से पहले उसने अपने क्षेत्र के मतदाताओं से पूछा था कि क्या वह दूसरे दल में चला जाए? क्या किसी नेता ने ये कहकर दल बदला कि वह उसमें रहते हुए अपने क्षेत्र का विकास कराने म़े नाकाम रहा? कारण बस ये रहा कि या तो उसे वापस टिकट नहीं मिल रहा था या सत्ता में रहते किए गए घपले-घोटालों के लिए जेल जाने से बचना था। जाहिर है इसका फायदा सत्तारूढ़ दल को ही ज्यादा मिला है। हालांकि पार्टी बदलने के खेल में सभी राजनीतिक दलों के नेता शामिल रहे।
वोट हमारा अमूल्य होता है,तो हम खुद इसकी कीमत क्यों नहीं पहचानते? क्यों दलबदलुओं को वोट देकर बार-बार उनका राजतिलक करते हैं,जबकि उन्हें तो सबक सिखाना चाहिए। क्यों वोट देते समय ये भूल जाते हैं कि इससे हम देश का भविष्य तय कर रहे हैं,अपनी जाति के नेता या किसी पार्टी का नहीं। क्यों देश के मुख्य मुद्दों और समस्याओं को भुलाकर भावनात्मक,धार्मिक,जातीय मुद्दों पर वोट डालते हैं? क्यों नेताओं के भाषणों से सम्मोहित होकर वोट दे देते हैं? फिर जब समस्याओं का समाधान नहीं होता तो पांच साल उन्हें कोसते हैं,लेकिन इससे उनकी सेहत पर क्या फर्क पड़ता है। कल से देश में लोकसभा चुनावों की शुरुआत हो रही है। अपना अमूल्य वोट डालने से पहले सोचे जरूर। ताकि बाद में पछतावा ना रहे।