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भाजपा के हारने वाले नेताओं के बयान पार्टी में ला रहे है मतभेद

■ओम माथुर ■

चुनावी राजनीति में जब तक कोई दल कामयाब रहता है, तब तक उसमें कोई कमजोरी नजर नहीं आती। उसका संगठन मजबूत दिखता है। सत्ता और संगठन में समन्वय नजर आता है। नेताओं में आपसी सहयोग दिखता है। कार्यकर्ता मेहनत करते दिखता है। भीतरघात नहीं दिखता यानि सब कुछ मंगल ही मंगल। लेकिन जैसे ही चुनाव में नाकामी हासिल होती है, मानो सब कुछ बिखर जाता है। हारने वाले उम्मीदवार दूसरे नेताओं पर चुनाव में सहयोग नहीं करने का आरोप लगाते हैं। संगठन का साथ नहीं मिलने की बात कहते हैं और उन्हीं मुद्दों को हार का जिम्मेदार मानते हैं, जिन  मुद्दों पर उनका अपना दल कभी इतरा रहा होता है।

राजस्थान में लोकसभा चुनाव (Loksabha election 2024) में 11 सीटों पर हारने के बाद भाजपा में यही हो रहा है। पन्ना प्रमुख (Panna Pramukh) तक अपने संगठन को मजबूत बताने वाली और सोशल इंजीनियरिंग के बूते टिकट वितरण करने वाली भाजपा  (BJP Rajasthan) के हारे उम्मीदवार ही अब संगठन, नेताओं और मुद्दों को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं। जबकि करीब छः महीने पहले विधानसभा चुनाव में भाजपा अपने संगठन की मजबूती और नेताओं के समन्वय को ही जीत का कारण बताती थी, क्योंकि उस वक्त उसने कांग्रेस से राजस्थान की सत्ता छीनी थी और लोकसभा चुनाव में उसने लगातार दो बार से जीत रही 25 में से 11 सीटें गंवाई थी। विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा को लग रहा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Narenda modi) के चेहरे और उनकी गारंटी के बूते वह 25 सीटों की हैट्रिक लगा लेगी लेकिन हार के बाद अब उसे लगने लगा है कि उम्मीदवार मोदी के ही भरोसे रह गए थे और इसी अति आत्मविश्वास का शिकार हो गए।

पूर्व विधायक देवी सिंह भाटी (Devi Singh Bhati) लोकसभा चुनाव में खराब प्रदर्शन का ठीकरा राजेंद्र राठौड़ (Rajendra Singh Rathor) व संगठन के काम पर फोड़ चुके हैं। उन्होंने कहा था कि राठौड़ ने एक-दूसरे की काट करने की राजनीति की। इसी वजह से माहौल बिगड़ा और टिकट भी ठीक प्रकार से नहीं बांटे गए। सबसे घातक चूरू से राहुल कस्वा (Rahul Kaswa) का टिकट कटना रहा। उन्होंने कहा कि अफसरशाही राजस्थान में हावी है और मुख्य सचिव के सामने विधायकों की कोई हैसियत नहीं। सीकर से पराजित सुमेधानंद सरस्वती (Sumedhanand Sarswati) भी राहुल कस्वा का टिकट कटने को राजस्थान में भाजपा के खराब प्रदर्शन का मुख्य कारण मानते हुए राठौड़ पर निशाना साध चुके हैं। उन्होंने कहा था कि कस्वा का टिकट कटने से भाजपा ने शेखावाटी की चारों सीटें गंवाई। सुमेधानंद ने वसुंधरा राजे की उपेक्षा को भी हार का मुख्य कारण माना। उधर, मुख्यमंत्री भजन लाल (Bhajan Lal Sharma) के गृह जिले भरतपुर से चुनाव हारे रामस्वरूप कोली (Ramswaroop Koli) ने अपने इलाके के विधायकों द्वारा सहयोग नहीं करने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि बैर विधायक बहादुर सिंह कोली (Bahadur Singh Koli) ने तो कांग्रेस प्रत्याशी संजना जाटव (Sanjana Jatav) को कन्यादान में वोट देने तक की अपील की थी। वहीं कामां विधायक नोक्षम चौधरी पूरे चुनाव में फोन नहीं उठाती थी। गृहराज्य मंत्री और नगर विधायक जवाहर सिंह बेढम का भी कोई फायदा नहीं मिला, क्योंकि गुर्जर बाहुल्य क्षेत्र में भाजपा हारी और लोगों ने बेढम की जगह पायलट की बात मानी। बयाना विधायक रितु तथा उनके पति पूर्व जिला अध्यक्ष ऋषि बंसल तथा कुम्हेर विधायक डॉक्टर शैलेश सिंह पर भी कोली ने पूरे चुनाव में सहयोग नहीं करने का आरोप लगाया। जब खुद मुख्यमंत्री के गया जिले में भाजपा की हालत यह हो तो समझा जा सकता है कि कोई राजस्थान में असंतोष किस स्तर पर खराब बढ़ा रहा होगा।

झुंझुनू से हारे शुभकरण चौधरी (Shubhakaran Choudhary) ने हार के लिए अग्निवीर योजना (Agniveer Yojana) को कारण बताया। जिस योजना की पहले भाजपा के नेता तारीफ करते नहीं सकते थे। लेकिन जैसे ही उसने देश में राजस्थान से सबसे ज्यादा सैनिक देने वाले शेखावाटी इलाके में हार का हार पहनाया, योजना चुभने लगी। उधर, किरोड़ी लाल मीणा (Kirodi Lal Meena) मंत्रिमंडल में सम्मानजनक स्थान नहीं मिलने से दौसा से चुनाव हारने पर स्थिति में इस्तीफा देना चाहते थे। लेकिन शायद उन्हें मना लिया गया, विधानसभा उपचुनाव से पहले पार्टी के नेताओं के मतभेद सड़क पर नहीं आएं।

हारे हुए नेताओं के इन बयानों के बीच पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे (Vasundhara Raje) ने कल उदयपुर (Udaipur) में भी अपने बयान से मतभेदों की आग में और भी डाल दिया। उन्होंने साफ कहा कि आज की राजनीति में लोग उसी को पहले काटने की कोशिश करते हैं, जिसकी उंगली पकड़कर वो राजनीति में चलना सीखते हैं। संभवतः वसुंधरा अपने राजनीतिक समर्थकों के उन्हें छोड़ देने से निराश हो। सब जानते हैं कि अपने राजस्थान में एकछत्र राज के दौरान वसुंधरा ने कई नेताओं को आगे बढ़ाया। लेकिन जैसे ही मोदी-शाह ने वसुंधरा से नजरें फेरी, यह नेता भी धीरे-धीरे उनसे दूर हो गए। केंद्र ने न सिर्फ वसुंधरा की विधानसभा-लोकसभा चुनावों में उपेक्षा की, बल्कि उनके बेटे दुष्यंत सिंह को लगातार पांचवीं बार जीतने पर भी उन्हें मंत्री नहीं बनाया। जबकि मोदी ने भजनलाल को पहली बार विधायक बनने पर मुख्यमंत्री और विधायक का चुनाव हारने के बाद सांसद बने भागीरथ चौधरी को केंद्रीय मंत्री बना दिया। लेकिन इसमें भागीरथ चौधरी (Bhagirath Choudhary) की किस्मत ज्यादा थी, क्योंकि राजस्थान में उनके अलावा भाजपा के सभी जाट उम्मीदवार लोकसभा चुनाव हार गए थे। पहले से ही नाराज जाटों को मनाने के लिए इकलौते जीते जाट भागीरथ को मंत्री बनाना पड़ा।

बहरहाल, भाजपा राजस्थान में अपनी हार की समीक्षा कर चुकी है और उसकी रिपोर्ट केंद्रीय संगठन को भेजी जा चुकी है। इसके बाद मुख्यमंत्री भजनलाल, विपक्ष के नेता रहे राजेंद्र सिंह राठौड़ और पूर्व प्रदेशाध्यक्ष सतीश पूनिया (Satish Poonia) आदि प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह (Amit Shah) से मुलाकात भी कर आए हैं। अब देखना यह है कि क्या विधानसभा उपचुनाव से पहले सत्ता या संगठन में कोई बदलाव होता है या उपचुनाव के नतीजे राजस्थान में भाजपा नेताओं का भविष्य तय करेंगे। कम से कम मुख्यमंत्री भजनलाल के लिए तो यह उपचुनाव अग्नि परीक्षा होंगे। क्योंकि अगर इनमें भाजपा को नाकामी मिली, तो फिर उनका पद पर बने रहना मुश्किल ही होगा। भले ही वह मोदी और शाह की व्यक्तिगत पसंद हो। लेकिन एक हकीकत यह भी है कि जिन पांच सीटों पर उपचुनाव होंगे, उन सभी पर कांग्रेस या इंडिया गठबंधन के विधायक थे। देवली-उनियारा से हरीश मीणा, दौसा से मुरारीलाल मीणा और झुंझुनू से विजेंद्र ओला जहां कांग्रेस के विधायक थे, वहीं राजकुमार रोत (Rajkumar Rot) चौरासी से बाप व हनुमान बेनीवाल खींवसर से आरएलडी के विधायक थे। यह दोनों पार्टियां इंडिया गठबंधन में शामिल थे। लेकिन इस बात में कोई संदेह नहीं रहा कि कस्वा के टिकट काटने से जहां जाट नाराज हुए, वहीं वसुंधरा की उपेक्षा से राजपूत भी। इन दोनों को भाजपा का वोट बैंक कहा जाता था।

उधर, सचिन पायलट (Sachin Pilot) के चलते गुर्जर और मीणाओं के गठबंधन ने पूर्वी राजस्थान में भाजपा को शिकस्त दी। बहरहाल, जो पार्टी अपने संगठन को सबसे मजबूत मानती है और जिसे विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करने के कारण अतिआत्मविश्वास था। वह लोकसभा चुनाव में ज्यादा 11 सीटें हारी और उसके बाद से नेताओं के मतभेद और मनभेद सामने आने लगे। कभी यह स्थिति कांग्रेस में हुआ करती थी। यानी पार्टी कोई भी हो, जब तक जीतती है तभी संगठित और मजबूत नजर आती है, हारते ही विरोध और आलोचना की आवाज उभरने लगती है।

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Author: dailyrajasthan

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