Breaking News

Home » किताब » पुस्तक समीक्षा : अनुभवों के अभिन्न पात्र जो बतियाते हैं – ‘उसे नहीं मालूम’

पुस्तक समीक्षा : अनुभवों के अभिन्न पात्र जो बतियाते हैं – ‘उसे नहीं मालूम’

विजय जोशी
समीक्षक एवं कथाकार, कोटा

संस्कार और परिवेश के मध्य व्यक्ति का जब जीवन की वास्तविकताओं से सामना होता है तो वह अपने विवेक से सामाजिक सरोकारों के प्रति संवेदनशील होता जाता है, तत्पश्चात् उसकी सृजनशीलता मानवीय सन्दर्भों के साथ-साथ समाज के विविध आयामों के प्रति सजग एवं प्रखर होती जाती है और उसकी संवेदना का मुखर स्वर अपने परिवेश में जुम्बिश पैदा कर देता है।
इन्हीं सन्दर्भों को आत्मसात् करते हुए वरिष्ठ साहित्यकार महेन्द्र ने अपने जीवन-अनुभव में उभर कर आये विविध आयामों और अपनी चेतना से अभिन्न होकर बतियाते हुए, जूझते हुए और आगे बढ़ते हुए पात्रों के साथ जब अपनी यात्रा आरम्भ की तो बाल्यकाल से मन-मस्तिष्क के पटल पर अंकित किस्से और बात कहने के संस्कारों का असर अनुभूत हुआ तथा अपने भीतर व्याप्त काव्य-संवेदना का स्पन्दन कथात्मक स्वरूप की ओर ध्वनित होने लगा। यही ध्वनि जब भावों के साथ शब्दों के लेकर प्रतिध्वनित होने लगी तो अनुभवों के अभिन्न पात्र बतियाने लगे – ‘उसे नहीं मालुम’। यही भाव महेन्द्र नेह के लघुकथा- संग्रह का शीर्षक बना।
यह एक लघुकथा-संग्रह का शीर्षक ही नहीं है वरन् जन से जन-जन के भीतर चल रही विचारों की तथा उससे उपजी संवेदना की वह ध्वनि है जो अन्ततः परिणात्मक रूप से निकलती रहती है, उसे नहीं मालूम।

बोधि प्रकाशन, जयपुर से 2015 में प्रकाशित महेन्द्र नेह के इस लघुकथा-संग्रह में 46 लघुकथाएँ हैं जिनमें से एक है – ‘उसे नहीं मालुम’ जो सामाजिक सन्दर्भों में पसर गये तथा अनुत्तरित से हो गये प्रसंगों की वास्तविकता को चित्रित करती है। इस माने में भी कि पात्र भले ही एक है तथापि वह समूचे मनुष्य समुदाय का प्रतिनिधत्व करता है।

चूँकि महेन्द्र नेह एक संवेदनशील साहित्यकार हैं तो उनकी कथाओं में – ‘कवि और समीक्षक’, ‘क्योंकि वह महान है’, ‘अम्बिका सरन मुशायरा’, ‘प्रेतों की वापसी’ तथा ‘चाकू और कलम’ जैसी लघुकथाएँ आना स्वाभाविक है जो साहित्यिक परिदृश्य की गहनता से विवेचना करती है। यही नहीं समाज और उसमें व्याप्त विसंगतियों, विडम्बनाओं और विषमताओं विकृतियों के साथ वैमनस्य और सामाजिक बुराइयों को गहराई से उभारती उनकी इन लघुकथाओं में एक विशेषता है कि वे यथार्थ का दामन तो थामे रहती हैं साथ ही समाज में परिवर्तन लाने के विचारों की सरिता भी बहाती है फिर चाहे वह नई पहचान, कौन भले को मंदे, सुखिऱ्यों में, पाबन्दियाँ, अपना-अपना भाग, बाशिन्दा, संकट, घड़ी की सुइयाँ, लव-मैरिज लघुकथा हो या फिर पहली बाजी, ऑपरेशन, कातिल, जन-सुनवाई, आडम्बर इत्यादि लघुकथा। यही नहीं ‘जीने का अधिकार’, ‘नये राग’ आदि लघुकथाओं में सामाजिक समता की संवेदनाओं को बल मिला है तो विचारों के समन्वयन का अवसर भी प्राप्त हुआ है।

इस संग्रह की मुँहजोरी, अनुभव, मैं परमात्मा हूँ, सस्ता माल, नई दुनिया, एक और नया अध्याय, शय्यादान आदि वे कथाएँ हैं जो व्यक्ति की समय-समय पर विकसित होती गई प्रवृत्तियों और सोच के दायरों का खुलासा करती हैं। ‘तूतू’ एक मार्मिक कथा है जिसमें राजरानी तपते हुए अपने अस्तित्व से जूझती हुई समाज के दोहरे चरित्र को उघेड़ती रहती है।
इस संग्रह की ‘पाँचवी औरत’ एक ऐसी लघुकथा है जो ‘जलना-जलाना’ अथवा ‘अग्नि की भेंट चढ़ जाना’ भावों की पाँच लघुकथाओं का

समुच्चय-सा आभास देती है परन्तु यह भाव अपने-अपने स्तर पर इन पाँचों भावों में आकार लेते हैं। अन्ततः पाँचवी औरत पार्वती बाई के रूप में यह भाव अपनी पूर्ण ऊर्जा के साथ सशक्त होकर प्रतिशोध बनाम परिवर्तन के ताप से सामने आता है और झुलसा देता है आडम्बरियों के चेहरे।

वैचारिक प्रवाह, कर्म क्षेत्र और परिवेश के प्रभाव के साथ इस संग्रह की नूर, धागे, उसकी सज़ा, तारीख़ें, नई अर्थनीति, अनुशासन, गाँव-मोह, पार्टनरशिप, प्रस्ताव, स्मरण-शक्ति, ईनाम, चेहरों की चमक, अरमान लघुकथाओं में उद्योग जगत्, श्रमिक वर्ग एवं संगठनात्मक परिवेश की भीतर तक की पड़ताल हुई है तो जीवन को जीने के हौंसलों और अपने हक़ की ललकार भी उभरी है तथापि सहने की पीड़ा और उससे उबरने के जुम्बिश भी पनपी है। इनमें ‘प्रगति’ एक ऐसी लघुकथा है जिसमें संगठन और सरोकार के दो दृश्य हैं जो वास्तविकता के साथ दृष्टिगोचर होकर प्रगति बनाम परिवर्तन की धारा को शिद्दत से उजागर करते हैं।
कुल मिलाकर इन लघुकथाओं की शैली और शिल्प में कहानियों-सा विस्तार है, विवरणात्मकता है साथ ही चित्रात्मकता का अंश भी है तो धीरे से पसरता विधा विशेष का मूल स्वर तीक्ष्णता का भाव भी है जो पाठक को सूक्ष्म रूप से झकझोरता है।

अन्ततः यही कि लघुकथाकार इन लघुकथाओं को लेकर जिस आन्तरिक कशमकश से घिर कर ‘मेरी अपनी बात’ में अपने विचारों के साथ यात्रा करता है तथा यात्रा करते हुए जो प्रश्नों का स्तम्भ खड़ा होता है उसके समक्ष प्रत्युत्तर में यही कहा जा सकता है कि – ये लघुकथाएँ हिन्दी की लघुकथाओं में कुछ नया जोड़ती हैं, ये ‘अभ्यास के दौरान लिखी गई लघुकथाएँ’ मानते हुए भी लघुकथा के मानकों तक आंशिक से पूर्णता की ओर खरी उतरने को आतुर हैं और ये पाठकों के हृदय को उद्वेलित कर देश-समाज में जो कुछ घटित हो रहा है, उसे जानने-समझने में, कुछ ठहर कर सोचने- समझने के लिए उत्प्रेरित करती हैं।

dailyrajasthan
Author: dailyrajasthan

Facebook
Twitter
WhatsApp
Telegram

Realted News

Latest News

राशिफल

Live Cricket

[democracy id="1"]