डॉ. कृष्णा कुमारी
‘‘घर से मस्जिद है बहुत दूर चलो यूँ कर लें,
किसी रोते हुए बच्चे को हंसाया जाये” – निदा फाजली
वाकई एक बालक को खुश कर देना किसी पूजा, नमाज या अरदास से कम नहीं है। शायद इसीलिए बालक भगवान का स्वरुप माना गया है। जैसा कि हम सब जानते हैं, बच्चे एक दम सरल, भोले, मासूम, निश्हल, जैसे अन्दर वैसे ही बाहर होते हैं। छल-कपट से कोसों दूर। बच्चे मन के सच्चे होते हैं। बालक तो कोरी मिट्टी या कोरे कागज की भांति होते हैं, जिन्हें हम जैसा आकर दे, वैसे ही ढल जाते हैं या यूँ कहें कि ये एक बीज की तरह होते हैं, जिन को जैसा खाद-पानी दिया जायेगा। वैसे ही पल्लवित, पुष्पित हो जायेंगे। ये हम पर निर्भर करता है कि हम अपना कर्तव्य किस शिद्दत से निभाते हैं। अपने ही शेर याद आ रहें है।
‘लहलहा उट्ठेगी फसलें वक़्त पर,
बीज को बस खाद पानी चाहिए।
सादगी महफूज बचपन में रहे,
और जवानी में जवानी चाहिए।
माता- पिता और समूर्ण समाज की जिम्मेदारी बनती है, इन बीजों को स्वस्थ हवा, जल, खाद देकर पल्लवित, पुष्पित और पोषित करने की। बच्चों को बच्चा कह कर बड़े लोग हमेशा नजरंदाज़ कर देते हैं जब कि इन की स्मृति अद्भुत होती है, एक बार में जो भी देख, सुन या पढ़ लेते है, उसे जीवन भर नहीं भूलते। बालक 10-12 साल तक की उम्र में जो कुछ भी सीखता है। वो सब उसके अचेतन मष्तिष्क में हमेशा के लिए संचित हो जाता है और धीरे-धीरे उसके संस्कार बन जाते हैं। इसीलिए बाल्यावस्था पर विशेष ध्यान देने की जरुरत होती है। ताकि बालक का सर्वंगीण और स्वस्थ विकास हो सके और वो संस्कारित, संवेदनशील एवं सुनागरिक बन सके।
जहिर है कि इसकी जिम्मेदारी माता-पिता और समूर्ण समाज पर निर्भर है, साथ ही विद्यालयों की भी। मगर आज केवल एकेडमिक उपलब्धियां प्राप्त करना, अच्छे नंबर लाना, श्रेष्ठ स्थान प्राप्त करना ही इन का एक मात्र उद्देश्य बन कर रह गया है। संस्कारों या नैतिक मूल्यों से तो इन का कोई सरोकार ही नहीं रहा। ऐसे में एक मात्र दीर्घ अवकाश के समय ही बालकों को श्रेष्ठ नागरिक और अच्छा इन्सान बनाने की कोशिश की जा सकती है। इस के लिए हर साल गर्मियों के अवकाश के समय प्राइवेट संथाएं निरंतर प्रयासरत रहती हैं। इस समय हर नगर और कस्बों में ऐसे कई आयोजन देखने को मिलते हैं, जहाँ पर बच्चों की अभिरुचियों को विकसित किया जाता है एवं उन को अच्छा इन्सान बनाने की प्रक्रिया भी चलती है। एक-एक शहर में कई-कई होबिज कक्षाएं चलाई जाती हैं, जहाँ बालक को अपनी छुपी हुई प्रतिभा को उजागर करने का अवसर मिलाता है और अन्य बच्चों के साथ ये सब काम करने से उस में प्यार, संवेदना, सहयोग, दया, सद्भावना आदि कई मानवीय मूल्य स्वतः विकसित होने लगते है। इन कक्षाओं में चित्रकला, संगीत, मूर्ति कला, उद्योग, सिलाई, बुनाई, कम्प्यूटर, पाक कला, ज्वैलरी निर्माण आदि अनेकानेक कलाओं और जीवनोपयोगी कार्य सिखाये जाते हैं। साथ ही अन्य कई प्रकार के प्रशिक्षण भी दिए जाते हैं। मगर अब इन कक्षाओं से बाहर निकाल कर व्यावाहारिक शक्ल देने की सख्त जरुरत है यानि अब हमें लीक तोड़ कर आगे बढ़ना है अर्थात कक्षाओं से बाहर निकल कर फिल्ड में जाना है तभी हम वांछित परिणाम प्राप्त कर सकते हैं। दार्शनिकों ने कहा भी है कि अनुभव ही सच्ची शिक्षा होती है। जहाँ तक लीक का प्रश्न है –
‘लीक छोड़ तीनों चले,
सायर, सिंह, सपूत‘
एक और शेर इसी प्रसंग में –
‘इसी इक बात पे अहले जमाना है खफा हमसे
लकीरें हम ज़माने से जरा हट कर बनाते हैं“ – पुरुषोत्तम “यकीन“
लीक से हटेंगे तब ही सकारात्मक परिणाम संभव है। अतः बच्चों को शहर से दूर कैम्प के रुप में बाहर कहीं रमणीय स्थान पर ले जाया जाये, एक दो सप्ताह या जितना भी मुनासिब हो सके। इसके लिए एक पड़ौस या एक स्कूल या जैसे भी हो, समूह बनाये जा सकते हैं। यहाँ पर बालकों से विभिन्न गतिविधियाँ यथा नाटक मंचित करवाएं जा सकते हैं, कवि गोष्ठियों का आयोजन हो सकता, जिसमें बच्चे स्वरचित कवितायेँ सुनाएँ। नृत्य, एकाभिनय आदि जो भी वो चाहें पेश करें। उनसे भोजन बनवाएं, वो ही परोसें, मिलकर खाएं, बाद के सारे कार्य वे स्वयं निपटाएं, साथ में सफाई के अलावा इस समय हाइजीन के बारे में भी अच्छे से समझा समझाया जा सकता है। इसी क्रम में बागवानी करना भी खेल-खेल में सिखाया जाये, पौधे लगाना, पानी पिलाना, गुदाई आदि सिखायें। कॉलोनी या बगीचे में पेड़ लगवाए जा सकते हैं। इसके सिवाय जो कुछ उन्होंने क्लास में सीखा है, उसे एक दूसरे को सिखाये क्योंकि सिखाने से जल्दी सीखने में आता है। साथ ही प्रकृति के सान्निध्य में रहने से पर्यावरण के प्रति स्वत जाग्रति उत्पन्न होगी। बालक पेड़-पौधों, कीट-पतंगों, पक्षियों आदि की गतिविधियों का अवलोकन करने से, उन के प्रति करुण भाव पैदा होगा और प्रक्रति प्रेम का बीजारोपण खुद ब खुद हो जायेगा। इसी के साथ बच्चों ये बताना नहीं भूलें की समस्त प्रकृति जीवन्त होती है, जब कोई फूल पत्ते तोड़ता है तो इनको भी हमारी तरह दर्द होता है इसलिए हमको एक भी फूल या पत्ती नहीं तोड़नी चाहिए। बच्चों को नदियों, तालाबों, झरनों, सागर तटों के करीब लेकर जाएँ, ताकि जल संरक्षण के प्रति लगाव उत्पन हो सके। जलीय जीवों के संदर्भ में रोचक जानकारी दें, ये भी बताएं कि जल में पूजन आदि की सामग्री विसर्जित करने से ये जीव नष्ट हो जाते हैं, अतः आगे से वे जल में ऐसा कुछ भी नहीं डालें।
पर्यावरणविद लक्ष्मीकांत दाधीच ने एक बार स्कूल में व्याख्यान के समय बताया था कि यहाँ नाली में डाली गई एक पोलीथिन की थैली समुद्र में पहुँचते-पंहुचते गोली का आकार ले लेती है, मछली उसे निगल जाती है और समाप्त हो जाती है। अब मछलियों की बात चली है तो इन को भोजन दिया जाये ताकि बच्चे देख सकें कि किस तरह सैकड़ों मछलियाँ एक साथ इकट्टी होकर भोजन पर टूट पड़ती हैं, मिलकर भोजन करती हैं। अस्तु इसी क्रम में एक दिन नोनिहालों को आस-पास के किसी गन्ने के खेत में ले जाइये, वहां चरखी चलती है, गुड बनता है, बालक इस प्रक्रिया को जब इतने करीब से देखेगा तो उसे यकीन नहीं होगा कि जिस गुड को वह घर में खाता है वो ऐसे बनता है, किसान का पूरा परिवार किस प्रकार मेहनत कर के इस काम को अंजाम देता है।
कभी चींटियों के बिलों तक ले जाइये, उनको चुग्गा डलवाईय। यदि बालकों को आप 2-4 दिन गांव ले जाएँ तो कहने ही क्या। बालक जिन गावों को किताबों में पढ़ते आये हैं, उनसे साक्षात्कार करेंगे तो उछल पड़ेंगे। किलकारियां भरने लगेंगे। इस प्रकार हमारी संस्कृति से रुबरु होंगे। खेत खलिहान दिखाइए, किस प्रकार फसलें लहलहाती है, कैसे अनाज पैदा होता है, उनको अवगत करवाएं। पशु पक्षियों की दुनिया में ले जाएँ, जिस दूध को पीने में वो इतनी आनाकानी करते हैं, वो गौमाता के थन से कैसे निकाला जाता है, ये प्रत्यक्ष देखेंगे तो उनकी बांछें खिल जाएँगी। इस प्रकार कई अन्यान्य तरीकों से भी अवकाश का सदुपयोग हो सकता है।
इस बीच किसी न किसी बच्चे का जन्मदिन तो जरुर आ जायेगा, तो देर किस बात की, आज इनको जरूरतमंद बच्चों या मूक-बघिर बालकों के पास लेकर जाएँ और किसी न किसी प्रकार की मदद इनके हाथों से करवाएं, संभव हो तो खाना परोसने का काम इन को सौपे, इससे बच्चे बहुत कुछ सीख जायेंगे। इस दिन बच्चों से वृक्ष भी लगवाया जा सकता है। मगर इससे आवश्यक ये है कि इन को खाद पानी के साथ-साथ पूरे संरक्षण की जिम्मेदारी भी दी जाये। आप यकीन नहीं करेंगे कि सरकारी स्कूल के बच्चों ने ट्रेन तक नहीं देखी है, बैठना तो बहुत दूर की बात है और निजी स्कूल के कितने ही बालक हाट तक नहीं जानते तो जरुरी हो जाता है कि इस दौरान बालकों को रेलवे प्लेटफॉर्म संभव हो तो एयरपोर्ट और हाट का भी भ्रमण करवाया जाये।
इसी संदर्भ में बच्चों को हो सके तो अखबार डिजायन करने का कार्य दिया जाये। फिर देखिए वो कितना सुन्दर अखबार बनाते हैं, शुभकामना पत्र भी बनवाये जा सकते हैं। इससे उनकी कल्पना शक्ति का कमाल देखा जा सकता है और हाँ इन को बहुत रोचक एवं व्यावहारिक ज्ञान देने वाली पत्र-पत्रिकाएं, किताबें मुहैया कराएँ, 2-4 दिन बाद उन से पूछिए कि उनमें सब से अच्छी बात क्या लगी और क्यों। इस प्रकार कई तरह की प्रतियोगिताओं के आयोजन के साथ निर्णायक की भूमिका भी उन को ही दी जाये। संभव हो तो गरीब बच्चों के बीच ले जाया जा सकता है ताकि बच्चे उनकी मदद करने को स्वतः आगे आने को प्रेरित हो, उनकी विवशताओं को समझ सके ताकि परस्पर सहायता के भाव उन में जागें। वे संवेदनशील नागरिक बन सकें। ये तो मात्र एक बानगी के लिए कुछ उदाहरण पेश हैं, ऐसे कई काम और कलाएं हैं जिन को अवकाश के समय सिखाया जा सकता है।
कक्षाओं में सीखी गई कलाओं की प्रदर्शनी लगवाई जाए ताकि उनका मनोबल बढ़ सके।
अगर नगर के बाहर शिविर लगाना संभव न भी हो तो ये सारे काम अपने नगर के बाग-बगीचे या आस-पास के स्थलों पर भी आयोजित किये जा सकते हैं। ये तो मैंने मात्र एक बानगी के लिए कुछ उदाहरण पेश किए हैं, ऐसे कई काम और कलाएं हैं जिन को अवकाश के समय सिखाया जा सकता है।
सारांशतः बात इतनी है कि ऐसे आयोजनों से बालक उत्तम नगरिक व अच्छा इन्सान बन सकेगा। ये छोटी-छोटी बातें एक दिन इन्हें बहुत बड़ा बना देगी। स्मरण रहे कि अच्छा इन्सान होना सब से अच्छा होना है। आज भी हर जगह अच्छे इन्सान की ही जरूरत है, जो अच्छा इन्सान बन गया वो तो सब कुछ बन गया। अच्छा इन्सान बन जाने पर बालक सब कुछ पाने योग्य तो अपने आप बन ही जायेगा। रही बात तकनीक की वो तो सब बच्चे हमसे ज्यादा जानते ही हैं।
हाँ, ये सब कुछ इतना आसान तो नहीं मगर मुश्किल भी कहाँ है क्लास में सीखे गई कला और ज्ञान को व्यवहार में लाना है, बस तभी तो उसकी सार्थकता होगी क्योंकि बिना जीवन में उतारे, सारा ध्यान केवल बोझमात्र है। उल्लखनीय है कि आज सीखी हुई ये सारी बातें बच्चे के जीवन में बहुत अनमोल साबित हो सकेगी। बातों ही बातों में बालक प्रेम, करुणा, सहयोग, मैत्री भाव, आत्मनुशासन, अहिंसा, जीव मात्र से प्यार करना, प्रकृति प्रेम आदि मानवीय मूल्य आत्मसात कर लेंगे। संस्कृति से अवगत होंगे, जमीन से जुड़ पाएंगे, किताबों में पढ़ी हुई बातों को स्वयं अनुभूत करके इतना कुछ सीख लेंगे जो बंद कमरे में बरसों तक नहीं जान पाते। अच्छे और नेक इन्सान तो बन ही जायेंगे साथ ही अनेकानेक रोजगार के भावी सपने भी उन की आँखों में बस जायेंगे।
सब सवाल ये भी है कि ये काम कौन करे, जाहिर है अभिभावक भी कर सकते हैं, या फिर ऐसी कक्षाओं के आयोजनकर्ता करें, मानिये 40 दिन का अवकाश है तो आधे समय यानि 20 दिन क्लारूम में सिखाएं और 20 दिन फिल्ड वर्क करवाएं। समाजसेवी संथाएं भी ऐसे कार्यों को बड़ी खूबसूरती से अंजाम दे सकती हैं। सम्पूर्ण सकारात्मक परिणाम के लिए तो व्यावहारिकता जरुरी है ही। अपना एक शेर –
‘सिर्फ बातों से नहीं बदलेगी सूरत,
कर दिखने की कभी कुछ ठान प्यारे।